सफाई का जुआ: ‘कार्बन ट्रेडिंग’ का मामला

A clean gamble

‘कार्बन ट्रेडिंग’ से भारत को जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल से बचने की प्रक्रिया में तेजी लाने में मदद मिलनी चाहिए

ऐसी उम्मीद है कि केंद्र सरकार इस साल के अंत तक भारत में ‘कार्बन ट्रेडिंग’ के बाजार की बारीकियों को स्पष्ट करेगी। वर्ष 2022 में पारित ऊर्जा संरक्षण अधिनियम में संशोधन और फिर अलग से, पेरिस और ग्लासगो समझौतों के जरिए जलवायु परिवर्तन से संबंधित ‘संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन’ द्वारा किए गए अनुमोदनों ने कार्बन बाजार (जहां ‘कार्बन क्रेडिट’ और ‘उत्सर्जन प्रमाण पत्र’ का कारोबार किया जा सकता है) की व्यापक वैश्विक स्वीकृति सुनिश्चित की।

‘कार्बन बाजार’ एक अस्पष्ट शब्दावली है और खासतौर पर भारतीय संदर्भ में इसमें स्पष्टता लाने की जरूरत है। एक दशक या उससे और ज्यादा पहले, इन बाजारों का आशय स्टॉक-मार्केट जैसे एक्सचेंजों से था, जो ‘कार्बन ऑफसेट’ के क्षेत्र में कारोबार करते थे और स्वच्छ विकास तंत्र (क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म) के तहत वैध थे। यहां, विकासशील देशों में स्थापित ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से बचने वाली औद्योगिक परियोजनाएं क्रेडिट की पात्र थीं जिन्हें सत्यापन के बाद उन यूरोपीय कंपनियों को बेचा जा सकता था जो खुद उत्सर्जन में कटौती के बदले उन्हें खरीद सकती थीं।

इसके साथ में ‘ईयू-एमिशन्स ट्रेडिंग सिस्टम्स’ (ईटीएस) मौजूद हैं, जहां एल्युमिनियम या इस्पात संयंत्रों जैसे औद्योगिक क्षेत्रों पर सरकार द्वारा अनिवार्य की गई उत्सर्जन की सीमाओं के तहत उद्योगों को या तो उत्सर्जन में कटौती करने या फिर उन कंपनियों से सरकार-प्रमाणित परमिट खरीदने की जरूरत होती है जो उत्सर्जन में आवश्यक सीमा से अधिक कटौती करती हैं या सरकारों द्वारा नीलामी की जाती हैं।

‘कार्बन क्रेडिट’ इसलिए कीमती हो गए क्योंकि उन्हें ईयू-ईटीएस एक्सचेंजों में परमिट के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता था। ऐसे परमिट एक किस्म के ‘प्रदूषण का अधिकार’ हैं और एक एक्सचेंज में शेयरों की तर्ज पर खरीदने-बेचे योग्य होने की वजह से किसी कंपनी की लाभप्रदता को संतुलित करने और प्रदूषण मानदंडों का पालन करने की जरूरत के आधार पर उनकी कीमतों में उतार-चढ़ाव होने की उम्मीद रहती है।

ऐसे बाजारों का मकसद अक्षय ऊर्जा के स्रोतों में निवेश को प्रोत्साहित करना है। भारत ने जहां निकट भविष्य में कार्बन उत्सर्जन को बढ़ाने के अपने अधिकार को बनाए रखा है, वहीं इसने 2030 तक उत्सर्जन तीव्रता (जीडीपी की प्रति इकाई पर उत्सर्जन) को अपनी (2005 के स्तर के) वृद्धि दर का 45 फीसदी तक कम करने के लिए खुद को प्रतिबद्ध किया है। वह ऐसा आंशिक रूप से प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (पीएटी) योजना के जरिए कर रहा है, जहां लगभग 1,000 उद्योग ऊर्जा बचत प्रमाणपत्र (ईएससर्ट्स) की खरीद और व्यापार में शामिल हैं।

वर्ष 2015 से, पीएटी के विभिन्न चक्रों ने उत्सर्जन में लगभग तीन फीसदी – पांच फीसदी की कमी दिखाई है। यूरोपीय संघ, जोकि 2005 के बाद से उत्सर्जन व्यापार की सबसे पुरानी योजना चलाता है, ने उत्सर्जन में पिछले वर्षों की तुलना में 2005-2019 से 35 फीसदी और 2009 में नौ फीसदी कटौती की थी। ‘कार्बन ट्रेडिंग’ की व्यवस्था सार्थक रूप से भारतीय संदर्भ में उत्सर्जन में कमी ला सकेगी या नहीं, यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाबर दशकों बाद ही मिल सकेगा।

हालांकि अगर यह व्यवस्था घरेलू वित्त को जुटाने और जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल से बचने की प्रक्रिया में तेजी लाने में सक्षम हुई, तो यह अपने आप में एक जीत होगी। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, सरकार को उद्योग जगत पर इस बाजार में भाग लेने के लिए पर्याप्त दबाव बनाने हेतु हस्तक्षेप करना तो चाहिए, लेकिन उसे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए खुद को साबित कर चुके गैर-बाजार आधारित पहलों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।

Source: The Hindu (23-02-2023)