Anti-defection law should not be undermined

दल-बदल विरोधी क़ानून, समय का सार

न्यायिक हस्तक्षेप को दल-बदल विरोधी कानून को मजबूत करना चाहिए, ना की इसे कमजोर करना चाहिए

Indian Polity Editorials

किसी सरकार को अल्पमत (minority) तक कम करने के लिए राजनीतिक दांव-पेंच को निष्पादित करना, समय का निष्कर्ष है। सरकार गिराने के लिए विरोधी विधायकों को पर्याप्त संख्या इकठ्ठा करने के लिए समय की आवश्यकता होती है । सत्तारूढ़ दलों को जल्द ही ऐसे अवसरों को बंद करने की आवश्यकता है, वह दल-बदलू को, विधायक हेतु अयोग्य घोषित करने के खतरे का उपयोग कर सकते हैं। यह इस पृष्ठभूमि में है कि, दल-बदलू विधायकों/सांसदों को अयोग्य ठहराने से संबंधित मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप होता है – या तो असंतुष्टों को समय दिया जाता है या उनपर अयोग्यता की कार्यवाही को निर्बाध रूप से चलने की अनुमति दी जाती है।

महाराष्ट्र विधानसभा में शिवसेना के विरोधी विधायकों को दल-बदल विरोधी कानून के तहत उपसभापति (Deputy Speaker) के नोटिस का जवाब देने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा 12 जुलाई तक का समय देने का आदेश, प्रभावी रूप अयोग्यता के खतरे के बिना उनके उद्देश्य को पूरा करना संभव बना दिया है। यह संदेहास्पद है कि क्या न्यायालय को दसवीं अनुसूची (10th Schedule) के तहत अंतिम निर्णय से पहले किसी भी स्तर पर अयोग्यता की कार्यवाही में न्यायिक हस्तक्षेप पर एक विशिष्ट प्रतिबंध के होते ऐसा करना चाहिए था। 1992 में (किल्होतो होलोहान बनाम जचिल्हू), एक संविधान पीठ ने दल-बदल विरोधी कानून की वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि सभापति (Speaker) का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन था, हालांकि सीमित आधार पर। साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि यह अंतिम निर्णय के बाद होना चाहिए, और कोई अंतरिम आदेश नहीं हो सकता है, सिवाय इसके कि कोई अंतरिम अयोग्यता या निलंबन है।

विधायकों को जवाब देने के लिए केवल दो दिन का उपसभापति का अनुदान, हस्तक्षेप का अवसर बन सकता है; लेकिन यह संदेहास्पद है कि क्या स्वयं न्यायालय अब इस प्रश्न पर चिंतन करेगा, यह उनकी संभावित अयोग्यता के बाद कब तय किया जा सकता है। अदालत के कु फैसले ऐसे हैं जो कहते हैं कि प्राकृतिक न्याय का अनुपालन दिए गए दिनों की संख्या पर आधारित नहीं है, लेकिन इस बात पर आधारित है कि क्या निर्णय से पहले पर्याप्त अवसर दिया गया था। नबाम रेबिया (2016) मामले में एक निष्कर्ष के आधार पर विरोधी विधायकों ने उपसभापति को हटाने के लिए एक प्रस्ताव भेजा, क्योंकि एक पीठासीन अधिकारी (Presiding Officer), जबकि उसके स्वयं के निष्कासन हेतु कोई प्रस्ताव लंबित हो, तो उसे किसी भी दलबदल शिकायत का निर्णय नहीं लेना चाहिए। उपसभापति, जो आवश्यक रूप से, सभापति की अनुपस्थिति में अयोग्यता के प्रश्नों का निर्णय ले सकते हैं, उनके द्वारा इसे अस्वीकार करने के बाद, इस अस्वीकृति पर अदालत में भी सवाल उठाया गया, जिससे उपसभापति के क्षेत्राधिकार को लेकर उनकी निर्णायक शक्ति पर प्रश्न उठाया गया है।

पीठासीन अधिकारी को हटाने के प्रस्तावों को “अयोग्यता की कार्यवाही” को दरकिनार करने की चाल नहीं बननी चाहिए। यदि अदालतें इस बारे में निर्णय लेने के लिए पैंतरेबाज़ी करती हैं, कि क्या किसी अन्य राज्य में डेरा डाले हुए और मुख्यमंत्री के बहुमत पर सवाल उठाने वाले विधायकों ने अपनी पार्टी की “स्वेच्छा से सदस्यता छोड़कर” अयोग्यता का सामना किया है, तो वे दल-बदल विरोधी कानून (anti-defection law) को कमजोर करती हैं और संविधान पीठों (constitution benches) द्वारा गलत निर्णय देती हैं। जब दलबदली को संविधान द्वारा एक गंभीर खतरे के रूप में पहचाना गया है, तो अदालतों को इसे आगे बढ़ाने के लिए कार्य नहीं करना चाहिए। गलत तरीके से अयोग्य ठहराए गए लोगों की रक्षा करने का कर्तव्य महत्वपूर्ण है, इसलिए उन दोषियों को पहचाना जा रहा है जिनके इरादे संदिग्ध हैं।

 

Source: The Hindu (30-06-2022)