सीमाओं के परेः सुप्रीम कोर्ट द्वारा जम्मू एवं कश्मीर परिसीमन आयोग के गठन के फैसले को उचित ठहराना

Beyond limits

जम्मू एवं कश्मीर में परिसीमन से कहीं ज़्यादा वास्तविक मुद्दे हैं राज्य का दर्जा और खास हैसियत

कानूनी और राजनीतिक औचित्य के बीच खासा फासला हो सकता है। जम्मू एवं कश्मीर के लिए परिसीमन आयोग का गठन करने के फैसले को बरकरार रखने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले और इसके बाद परिसीमन को लेकर हुई कवायदें बिला शक कानूनसम्मत हैं। खासकर उन संवैधानिक प्रावधानों के संगत हैं जो संसद को जहां नए राज्य बनाने, पुराने राज्यों में बदलाव करने, और उनकी स्थिति व सीमाएं बदलने की शक्ति देते हैं, वहीं जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून, 2019 बनाने की शक्ति देते हैं।

हालांकि, इसे केंद्र शासित प्रदेश में निर्वाचन क्षेत्रों को पुनर्गठित करने के राजनीतिक कार्य को न्यायिक इजाजत मिलने के तौर पर देखना गलत होगा। अगस्त 2019 में केंद्र शासित प्रदेश की स्थिति में धकेल दिए गए जम्मू एवं कश्मीर में ज्यादातर राजनीतिक दलों ने आयोग की रिपोर्ट का विरोध किया जिसमें जम्मू क्षेत्र में छह सीट और कश्मीर क्षेत्र में एक सीट जोड़ी गई थी और इस तरह सीटों की कुल संख्या 90 कर दी गई थी।

इस कवायद को राजनीतिक दल मुस्लिम बहुल क्षेत्र की राजनीतिक और चुनावी अहमियत को कमजोर करने और जम्मू में अपना आधार रखने वाले दलों के जीतने की संभावना को बढ़ाने के प्रयास के तौर पर देखते हैं। उनका मानना है कि यह जम्मू-कश्मीर से इसका दर्जा और इसके विशेषाधिकार छीन लेने वाली परियोजना का ही विस्तार है और यह इसकी राजनीति को सत्तारूढ़ दल के हित में साधने का प्रयास है। औचित्य के इस सवाल का जवाब तो प्रादेशिक विधायिका को लेकर होने वाले चुनाव के नतीजों से ही मिल सकता है, चाहे ये जब भी हों। फिर भी, निर्वाचन क्षेत्रों में किए गए फेर-बदल भी इस प्रक्रिया पर असर डाल सकते हैं।

परिसीमन आयोग के गठन को चुनौती देने वाली याचिका काफी देर से दाखिल की गई, क्योंकि इसे पैनल की ओर से अपना मसौदा आदेश प्रकाशित कर देने के बाद दाखिल किया गया। अदालत ने इसके मुख्य तर्क को ही खारिज कर दिया कि 2026 के बाद पहली जनगणना तक पूरे देश में परिसीमन को रोक दिया गया है और इस संबंध में अनुच्छेद 170 के हवाले से कहा कि यह सिर्फ राज्यों पर लागू होता है, केंद्र शासित प्रदेशों पर नहीं। इसने यह भी कहा कि जम्मू-कश्मीर का शासन इसके अपने पुनर्गठन कानून द्वारा किया जाएगा, जो इसके परिसीमन के लिए 2011 की जनगणना को आधार मानता है।

यह बाकी देश से अलग है, क्योंकि बाकी देश में निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्गठन के लिए 2001 की जनगणना को आधार बनाया गया था। अदालत ने उन तर्कों को भी खारिज कर दिया जिनमें कहा गया था कि पुनर्गठन कानून के कुछ प्रावधान संविधान के संगत नहीं थे और कहा कि इन प्रावधानों को खास तौर पर चुनौती नहीं दी गई है।

हो सकता है कि परिसीमन संबंधी पैनल के गठन को, इसे दी गई छूटों को जायज ठहराने में अदालत सही हो और कानून पर आधारित इसका फैसला चाहे फ़िलहाल मान्य लग रहा हो, लेकिन छवि यह बनती जा रही है कि जम्मू एवं कश्मीर के लोगों की राजनीतिक नियति से संबंधित मामलों पर उनका भाग्य मानो तय हो चुका है जब तक यह मुख्य मसला तय नहीं होता कि 2019 में इससे राज्य का दर्जा और विशेष दर्जा छीना जाना कितना वैध है।

Source: The Hindu (16-02-2023)