बार-बार मुंह उठाता संकट: आईएमएफ का पाकिस्तान को “बेलआउट पैकेज”

Cyclical troubles

आर्थिक संकट से निजात पाने के लिए, पाकिस्तान को आईएमएफ से एक और “बेलआउट पैकेज” की उम्मीद है

पाकिस्तान सरकार के साथ 10 दिनों की बातचीत के बाद, आईएमएफ का प्रतिनिधिमंडल 9 फरवरी को इस्लामाबाद से रवाना हो गया। रवाना होने से पहले उसने न तो 7 अरब डॉलर के मौजूदा ऋण कार्यक्रम की समीक्षा को लेकर और न ही इस बात को लेकर कोई अंतिम बयान दिया कि वह संकट से जूझ रही इस अर्थव्यवस्था को ऋण की नई किस्त जारी करेगा या नहीं।

शहबाज शरीफ की अगुवाई वाली सरकार ने जोर देकर कहा कि मानक प्रक्रिया के तहत ही सबकुछ किया गया। उन्होंने यह भी कहा कि आईएमएफ की आंतरिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद देश को ऋण की नई किस्त की उम्मीद है। हालांकि, आईएमएफ की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए सरकार द्वारा कथित तौर पर टैक्स की नई दरों, सब्सिडी घटाने और तेल के उपभोग पर टैक्स बढ़ाए जाने के लिए सहमत होने से भी हताशा स्पष्ट है।

आर्थिक संकट गहराता जा रहा है- शहरी क्षेत्रों में भी बिजली कटौती जारी है, जनवरी में सालाना मुद्रास्फीति दर 27.5 फीसदी थी, जोकि 1975 के बाद सबसे ज्यादा है, डॉलर के मुकाबले पाकिस्तानी रुपया करीब 270 के स्तर तक गिर गया है और विदेशी मुद्रा भंडार तीन अरब डॉलर से नीचे आ गया है, जो कि फरवरी 2014 के बाद का सबसे निचला स्तर है। इससे भुगतान संतुलन खतरे में पड़ गया है।

पिछले साल आई भीषण बाढ़ का असर अर्थव्यवस्था पर अभी तक दिख रहा है। हजारों लोग अब भी बेघर हैं, कृषि योग्य भूमि नष्ट हो गई और बड़ी आबादी पर्याप्त भोजन से महरूम है। अर्थव्यवस्था की बदतर स्थिति, आईएमएफ से एक और बेलआउट पैकेज की मांग करती है जोकि साल 2000 के बाद इस तरह का छठा पैकेज होगा। यह अपरिहार्य लग रहा है क्योंकि पश्चिम एशिया के पारंपरिक मित्र देशों और चीन के अलावा आईएमएफ से मिले समर्थन के बूते ही पाकिस्तान भुगतान संतुलन की समस्या से पार पा सकेगा।

कोविड-19 महामारी और बाढ़ के बावजूद, आर्थिक संकट में बार-बार फंसकर आईएमएफ से मदद मांगने की आदत, सरकार की नाकामी को दिखाती है। हालांकि आयात पर निर्भरता, निर्यात की तरफ प्रतिस्पर्धात्मक रुख की कमी, खराब राजकोषीय प्रबंधन, संकट के कुएं में बार-बार डूबने वाली इस अर्थव्यवस्था की मुख्य वजहे हैं। यह भी कहा जा सकता है कि सेना के दबदबे वाले लोकतांत्रिक देश में निरंकुश सत्ता का भी यह एक परोक्ष परिणाम है। इस साल के अंत में वहां चुनाव होने वाले हैं, लेकिन राजनीतिक प्रक्रिया में दखलअंदाजी करने वाली सेना और मुख्य राजनीतिक पार्टियों के बीच में भरोसा न के बराबर बचने से देश में बाकी स्थितियां बहुत अच्छी नहीं हैं।

जब तक सरकार अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक संरचनात्मक कमजोरियों को दूर करने की कोशिश नहीं करती और भारत जैसे पड़ोसियों के साथ संबंध सुधारने के तरीके नहीं खोजती, तब तक समय-समय पर आर्थिक समस्या इसी तरह मुंह उठाती रहेगी। हालांकि, ऐसा होने देने के लिए सेना को सत्ता संरचना से पीछे हटना होगा, जिसकी मध्यम अवधि में संभावना काफी धूमिल दिख रही है।

Source: The Hindu (13-02-2023)