अपार श्रद्धा: नोटबंदी पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सरकार को जवाबदेह ठहराने में नाकाम रहा

Overly deferential: On Supreme Court judgment on demonetisation

नोटबंदी को सही दावा देते हुए, सुप्रीम कोर्ट सरकार को जवाब देश जारी करने में नाकाम रहा

यह एक बार-बार दोहराया जाने वाला न्यायिक नजरिया है कि अदालतों को आर्थिक और सामाजिक नीति के मसले पर निर्वाचित सरकार के फैसलों से खुद को अलग रखना चाहिए। अदालतों के हस्तक्षेप आमतौर पर उन मामलों तक ही सीमित होते हैं, जिसमें कार्यकारी निर्णय मनमाने या स्पष्ट रूप से अवैध होते हैं।

इस पृष्ठभूमि में, यह कोई हैरत की बात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ के पांच में से चार न्यायाधीशों ने 8 नवंबर, 2016 को चलन में रहे 500 रुपये और 1,000 रुपये के सभी नोटों को विमुद्रीकृत करने के कदम की नाटकीय घोषणा करने के मामले में सरकार के विवेक को सही मान लिया। न्यायिक हस्तक्षेप का दायरा सिर्फ निर्णय लेने की प्रक्रिया की जांच करने तक सीमित था, लेकिन न्यायधीशों के बहुमत ने निर्णय लेने की प्रक्रिया को दोषमुक्त मानते हुए बिना किसी नुक्ताचीनी के उसे अपना समर्थन दिया है।

अदालत के इस फैसले ने मात्रात्मक प्रतिबंधों के बिना नोटों को विमुद्रीकृत करने की सरकार की शक्ति को बरकरार रखा है और इस दावे को स्वीकार किया है कि इस कदम की शुरुआत करने वाली केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के बीच पर्याप्त राय – मशविरा हुई थी। बहुमत के फैसले का एक चिंताजनक पहलू यह है कि इसने विमुद्रीकरण की वजह से लोगों को हुई भारी तकलीफ को हल्का बना दिया है। भले ही इस फैसले में ऐसी टिप्पणियां हैं जो कठिनाई की संभावना और अंततः विमुद्रीकरण के विफल हो सकने के तथ्य को रेखांकित करती हैं, लेकिन वे इस कथन के संदर्भ में सीमित हैं कि इस कदम को अमान्य करने के लिए न तो व्यक्तिगत पीड़ा और न ही निर्णय की त्रुटियों का हवाला दिया जा सकता है।

बहुमत ने अनुरूपता के पर्याप्त तर्कों को खारिज कर दिया है और यह माना है कि विमुद्रीकरण अनुरूपता की हर परीक्षा में खरा उतरता है, इसका एक वैध उद्देश्य था (नकली मुद्रा और जमा धन का पता लगाना और आतंक के वित्तपोषण का मुकाबला करना), कार्रवाई एवं उद्देश्यों के बीच एक मेल था और अदालत के पास इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए कम दखलंदाजी वाले तरीकों का सुझाव देने की विशेषज्ञता नहीं है। हालांकि, यह इस सवाल को ठीक से नहीं सुलझाता है कि विमुद्रीकरण के प्रतिकूल नतीजों को सीमित किया जा सकता था या नहीं। यह

दुर्भाग्यपूर्ण है कि अदालत के पास अर्थव्यवस्था में उपलब्ध कुल मुद्रा के 86 फीसदी हिस्से के मूल्य को समाप्त करने के विनाशकारी प्रभाव और आम आबादी पर कहर बनकर टूटी तकलीफों का अनुमान लगाने में सरकार की विफलता के बारे में कहने के लिए कुछ भी प्रतिकूल नहीं था। इस पूरी प्रक्रिया को त्रुटिपूर्ण और आरबीआई के रवैये को बददिमागी भरा मानते हुए, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना द्वारा जतायी गई असहमति उन लोगों के लिए एक सांत्वना है जो यह चाहते हैं कि अदालतें सत्ता में बैठे लोगों को जवाबदेह ठहराएं।

एक व्यापक अर्थ में, निश्चित रूप से, नीतिगत सवालों पर न्यायिक फटकार बहुत कम मायने रखती है। लेकिन यह लोगों के लिए दूरगामी नतीजों वाले फैसलों को लागू करने से पहले सरकारों के लिए थोड़ा ठहरकर सोचने की एक वजह बन सकती है।

Source: The Hindu (04-01-2023)