पटरी से उतरना: ग्रामीण रोजगार योजना और केंद्र द्वारा इसकी फंडिंग में बदलाव की कोशिश

Going off-course

मनरेगा में बदलाव संबंधी केंद्र के सुझाव गुमराह करने वाले मालूम होते हैं

किसी भी कल्याणकारी कार्यक्रम की सफलता की कुंजी उसके अमल में छिपी होती है। मनरेगा के लागू होने के 17 सालों में हुए विभिन्न अध्ययनों ने ग्रामीण इलाकों में इसके समग्र सकारात्मक प्रभाव पर जोर दिया है।

बे-मौसमी रोजगार प्रदान करके गरीबी कम करने से लेकर लाभार्थी गरीब नागरिकों के बीच घरेलू उपभोग बढ़ाने, खराब मानसून वाले मौसमों के दौरान एक बीमा के तौर पर काम आने, सृजित किए गए कार्यों के मार्फत बढ़ी हुई उत्पादकता के जरिए व्यापक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने तक, यह योजना कल्याण का एक मजबूत उपकरण बनी हुई है। यह तथ्य महामारी के दौरान और भी ज्यादा स्पष्ट तरीके से नजर आया, जब लॉकडाउन की वजह से शहरी इलाकों को छोड़कर अपने घरों को लौटने वाले हजारों प्रवासी श्रमिकों ने ग्रामीण इलाकों में मनरेगा के तहत काम शुरू किया, जहां छोटे लेकिन कठिन कार्यों की मांग चरम पर थी।

निश्चित रूप से, यह योजना अभी भी सड़कों तथा सिंचाई की नहरों से परे जाकर और अधिक उपयोगी परिसंपत्ति बनाने की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाई है तथा इसके आधार को और ज्यादा व्यापक करने एवं अमल को बेहतर बनाने की जरूरत है। लेकिन इतना जरुर कहा जाना चाहिए कि इस योजना को लेकर केंद्र सरकार का बर्ताव इसकी जरूरत के प्रति ठंडापन दिखाने से लेकर इसे वित्तीय बोझ मानने तक का रहा है।

अगर केंद्रीय बजट में इस योजना के लिए वित्तीय वर्ष 2023 के दौरान कुल परिव्यय के 2.14 फीसदी के आवंटन की तुलना में वित्तीय वर्ष 2024 में महज 1.33 फीसदी के घटे हुए आवंटन पर गौर किया जाए, तो इस किस्म का निष्कर्ष उचित रूप से निकाला जा सकता है। आवंटन में यह कमी हाल के वर्षों में इस योजना के अमल में रहते मजदूरी के भुगतान में देरी और जरूरत से कम फंडिंग की समस्या के बावजूद की गई है। इसने मांग को भी कम कर दिया है। काम के लिए औपचारिक अनुरोध वास्तविक मांग का सिर्फ एक हिस्सा भर ही है।

इसके अलावा, इस बात के ढेरों सबूत हैं कि आधार-आधारित भुगतानों से न तो भ्रष्टाचार कम हुआ है और न ही मजदूरी के भुगतान में होने वाली देरी कम हुई है। भुगतान की इस व्यवस्था ने इस योजना के अमल के दौरान अधिकारियों और श्रमिकों के लिए बाधाएं ही पैदा की हैं। तिस पर, अब केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा है कि राज्यों को “भ्रष्टाचार के प्रति अधिक सतर्क” बनाने के मकसद से केंद्र सरकार द्वारा इस योजना में शत – प्रतिशत धन के योगदान की व्यवस्था को बदलकर केंद्र और राज्यों के बीच 60-40 के अनुपात में बंटवारे हेतु इस अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिए।

लेकिन इससे फंडिंग संबंधी जटिलताएं और ज्यादा बढ़ेंगी। जीएसटी और महामारी के दौरान पैदा हुए वित्तीय दबाव के बाद करों में राज्यों की हिस्सेदारी घटी है। लिहाजा फंडिंग का 40 फीसदी बोझ उठाने वाले राज्यों में मजदूरी के भुगतान पर और ज्यादा असर पड़ेगा। इसके अलावा, मनरेगा मांग द्वारा संचालित एक कार्यक्रम है और यह गरीब राज्यों में विशेष रूप से अहम है।

नतीजतन यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इस किस्म के बंटवारे के लिए अलग-अलग राज्यों पर दबाव डालने के बजाय इस योजना की मजबूत फंडिंग सुनिश्चित करे। सरकार को गरीबों के काम के अधिकार को सुनिश्चित करने की मनरेगा की क्षमता को पहचानते हुए इसके प्रति अपने नजरिए में बदलाव लाना चाहिए।

Source: The Hindu (18-02-2023)