India-Afghanistan, a policy from disengagement to engagement

क्रमिक सहभागिता

भारत को अफगानिस्तान के साथ यथार्थवाद में निहित सहभागिता की नीति बनाए रखनी चाहिए

International Relations

तालिबान अधिकारियों से मिलने के लिए काबुल में एक राजनयिक प्रतिनिधिमंडल भेजने का भारत का निर्णय 1990 के दशक की उस नीति से एक उल्लेखनीय अंतर दिखाता है जब अफगानिस्तान में सुन्नी इस्लामी समूह  सत्ता में था। उस समय, भारत ने काबुल के साथ विघटन की नीति (policy of disengagement) अपनाई थी और तालिबान विरोधी लड़ाकों (anti-taliban militias) का समर्थन किया था। लेकिन इस बार, अफगानिस्तान की आंतरिक स्थिति और क्षेत्रीय गतिशीलता अलग प्रतीत होती है, जो तालिबान के अतिवाद(extremism) के साथ उनके मतभेदों के बावजूद, कई पड़ोसी देशों को तालिबान शासन के प्रति अधिक रचनात्मक नीति अपनाने के लिए प्रेरित कर रही है। भारत ने तालिबान के कब्जे से कुछ दिन पहले अगस्त 2021 में काबुल में अपने दूतावास को बंद कर दिया था, लेकिन उनके साथ संचार मार्ग बनाए रखा है।

सितंबर में, भारत के राजदूत दीपक मित्तल ने दोहा (कतर की राजधानी) में भारतीय दूतावास पर तालिबान के एक वरिष्ठ अधिकारी शेर मोहम्मद अब्बास स्टैनेकजई से मुलाकात की थी। अक्टूबर में, भारतीय अधिकारियों ने, अफगानिस्तान को लेकर मास्को में आयोजित एक क्षेत्रीय सम्मेलन में, तालिबान के उप प्रधान मंत्री अब्दुल सलाम हनाफी से मुलाकात की। यहां, भारत भी उन नौ अन्य देशों में शामिल हो गया जो  अफगानिस्तान में “नई वास्तविकता” को मान्यता दे रहे हैं | बाद में, नई दिल्ली ने अफ़ग़ानिस्तान को गेहूं, कोविड -19 टीकों और सर्दियों के कपड़ों सहित मानवीय सहायता उस समय भेजी जब वह देश लगभग पूरी तरह से आर्थिक पतन का सामना कर रहा था। विदेश मंत्रालय में पाकिस्तान-अफगानिस्तान-ईरान डिवीजन के संयुक्त सचिव, जे.पी. सिंह की तालिबान के कार्यवाहक विदेश मंत्री, मौलवी अमीर खान मुत्ताकी के साथ मुलाकात, स्वाभाविक तौर पर भारत द्वारा उठाए गए क्रमिक सहभागिता (gradual engagement) की इस नीति का एक अगला कदम है।

विदेश मंत्रालय ने कहा है कि यह भेंट(visit) अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के लिए भारत की मानवीय सहायता को केवल समन्वित करने में मदद करने के लिए है। हालांकि यह भी सच है कि अतीत में रक्तपात को देखते हुए, यह भेंट बेहतर आपसी-समझ और सहभागिता का मार्ग भी प्रशस्त करेगी। अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के मामले में भारत की तीन मुख्य चिंताएं हैं।

पहला, भारत ने पिछले 20 वर्षों में अरबों डॉलर का निवेश किया है। वह इन निवेशों की रक्षा करना चाहता है और अफगान लोगों की सद्भावना को बनाए रखना चाहता है।

दूसरा, जब 1990 के दशक में तालिबान सत्ता में था, तब अफगानिस्तान भारत विरोधी आतंकवादी समूहों के लिए एक सुरक्षित पनाहगाह बन गया था। अफगानिस्तान के मुजाहिद्दीन-तालिबान शासनकाल के दौरान भारत ने कश्मीर में हो रही हिंसा में तेजी से वृद्धि को देखा। नई दिल्ली नहीं चाहेगी कि इतिहास खुद को दोहराए और  भारत, तालिबान से प्रतिबद्धताएं चाहता है कि वे भारत विरोधी समूहों के लिए समर्थन की पेशकश नहीं करेंगे।

तीसरा, तालिबान का हमेशा के लिए पाकिस्तानी पुछ्लगु बना रहना भारत के रणनीतिक हित में नहीं है। नई दिल्ली इनमें से किसी भी उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकती है यदि वह तालिबान के साथ संलग्न नहीं है। लेकिन, साथ ही, भारत को तालिबान के पश्तून, केवल पुरुषों के शासन, को राजनयिक मान्यता देने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए, जिसने अपने देश में महिलाओं पर कठोर प्रतिबंध लगाए हैं। तालिबान द्वारा अधिक समावेशी शासन अपनाने को प्रेरित करने के लिए भारत को अन्य क्षेत्रीय और वैश्विक खिलाड़ियों के साथ काम करना चाहिए, साथ ही साथ यथार्थवाद में निहित क्रमिक द्विपक्षीय संबंधों (gradual bilateral engagement) की नीति को बनाए रखना चाहिए।

Source: The Hindu (04-06-2022)