नीतिगत नादानी: पाकिस्तान के पेशावर में मस्जिद पर आतंकी हमला
पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ अपने नजरिए में आमूल बदलाव लाने की जरूरत है
टीटीपी और अफगान तालिबान सांगठनिक रूप से अलहदा हो सकते हैं, लेकिन वैचारिक रूप से वे आपस में भाई हैं। टीटीपी पाकिस्तान में वही करना चाहती है, जो तालिबान अफगानिस्तान में करने में कामयाब रहा है। वर्ष 2014 के पेशावर स्कूल बम विस्फोट, जिसमें 150 से अधिक लोग मारे गए जिनमें ज्यादातर मासूम बच्चे थे, के बाद पाकिस्तानी सेना ने इस समूह पर नकेल कस दी थी। लेकिन अफगान तालिबान की सत्ता में वापसी ने सीमावर्ती इलाके में उग्रवाद के समीकरणों को बदल दिया। श्री खान ने टीटीपी के प्रति जुड़ाव की नीति अपनाई। अफगान तालिबान ने टीटीपी और पाकिस्तान सरकार के बीच वार्ता की मेजबानी की जिसके कारण संघर्ष विराम हुआ। लेकिन साल भर चला यह संघर्षविराम पिछले साल नवंबर में टूट गया।
कई लोगों का यह मानना है कि टीटीपी ने इस संघर्षविराम का इस्तेमाल खुद को नए सिरे से हथियारबंद और संगठित करने में किया और अब वह अधिक मारक क्षमता के साथ आतंक फैला रहा है। पेशावर विस्फोट राजनीतिक अस्थिरता के एक ऐसे दौर में हुआ है, जब श्री खान सरकार के खिलाफ एक अनवरत अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं, पाकिस्तान की मुद्रा अवमूल्यन की शिकार है, इसका विदेशी मुद्रा भंडार खत्म हो रहा है, मुद्रास्फीति बढ़ रही है और बिजली की हालत गंभीर बनी हुई है। अपने कर्ज का भुगतान करने में असमर्थ, पाकिस्तान सरकार संकट से उबारने वाली सहायता (बेलआउट पैकेज) के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के साथ बातचीत कर रही है। और अब, सुरक्षा की एक चुनौती सामने है।
पाकिस्तान को यह महसूस करना चाहिए कि आतंकवाद एवं उग्रवाद के खिलाफ चुन-चुनकर लड़ने और चुन-चुनकर उन्हें पनाह देने की उसकी नीति ने फायदे से ज्यादा नुकसान ही पहुंचाया है। उसे आतंकवाद के खिलाफ अपने नजरिए में आमूल बदलाव लाने की जरूरत है। लेकिन इससे कहीं ज्यादा जरूरी तत्काल अपने संसाधनों को इकट्ठा करके उस टीटीपी के खिलाफ पिल पड़ना है, जो पाकिस्तान की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा पैदा कर रहा है।
जब अगस्त 2021 में तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया था, तो पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा था कि अफगानिस्तान ने “गुलामी की बेड़ियों को तोड़ दिया है”। तालिबान नेतृत्व को पनाह देने वाले पाकिस्तान को तब व्यापक तौर पर अफगान गृहयुद्ध के विभिन्न विजेताओं में से एक के रूप में देखा गया था। लेकिन तालिबान की जीत के साथ सुन्नी इस्लामवादी उग्रवाद के पाकिस्तानी संस्करण तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) को भी बढ़ावा मिलने से जश्न का यह माहौल फीका पड़ गया। तब से, पाकिस्तान आतंकवादी हमलों में इजाफे का गवाह बना है। खासतौर पर, अफगानिस्तान की सीमा से सटे खैबर पख्तूनख्वा में।
सुरक्षा के लिहाज से बेहद चाक-चौबंद पेशावर के पुलिस लाइन इलाके में सोमवार को एक मस्जिद में हुआ विस्फोट, जिसमें कम से कम 100 लोगों की जानें चली गईं, हाल के वर्षों में पाकिस्तान में सबसे घातक हमला था। इस घटना ने साफ तौर पर यह याद दिलाया है कि “अच्छे तालिबान” का समर्थन करने और “बुरे तालिबान” से लड़ने की पाकिस्तान की रणनीति किस कदर उल्टी पड़ी है।
शुरू में टीटीपी के एक गुट ने इस घटना की जिम्मेदारी ली, लेकिन उसके एक प्रवक्ता ने इसमें किसी भी भूमिका से इनकार किया। यह इस समूह की भागीदारी को लेकर किसी किस्म का संदेह पैदा करने के बजाय इसकी अंदरूनी फूट को दर्शाता है। यह विस्फोट टीटीपी द्वारा किए गए एक हमले की शिनाख्त करता है – यह उसके गढ़ में हुआ और इसमें सुरक्षाकर्मियों को निशाना बनाया गया। और किसी अन्य समूह ने इसकी जिम्मेदारी नहीं ली है।