दर्द कम करने की कवायद : मासिक धर्म के दौरान छुट्टी का मामला 

Reducing pain

लैंगिक समानता की राह में आने वाली सभी बाधाएं खत्म होनी चाहिए

लैंगिक समानता की राह में आने वाली कई बाधाओं को हटा तो दिया गया है, लेकिन कई बाधाएं अभी भी बरकरार हैं। महिलाओं ने वर्तमान स्थिति तक पहुंचने के लिए कड़ी मेहनत की है। उच्च शिक्षा और काम के अवसरों की बदौलत आज वे कामकाजी जिंदगी और घेरलू जिम्मेदारियों को संतुलित करने का सपना देख पा रही हैं। हालांकि, समानता के कुछ पहलू अभी भी कई महिलाओं के लिए हकीकत नहीं बन पाए हैं। प्रजनन स्वास्थ्य से संबंधित अधिकारों की लड़ाई एक कठिन जंग रही है, लेकिन महिलाएं अपने स्वास्थ्य और कल्याण की दशा में सुधार के लिए सरकारों को नीतिगत बदलाव शुरू करने के लिए राजी करने में सफल रही हैं।

भारत में, महिलाओं को बेहतर लाभ देने के इरादे से 1961 में संसद द्वारा पारित मातृत्व लाभ अधिनियम में समय-समय पर संशोधन किए गए हैं।  मसलन, सवैतनिक मातृत्व अवकाश को 12 सप्ताह से बढ़ाकर 26 सप्ताह कर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक याचिकाकर्ता को मासिक धर्म के दौरान होने वाले दर्द से आराम पाने के लिए छुट्टी देने के संबंध में एक नीति तैयार करने के वास्ते केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से संपर्क करने के निर्देश को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

इस तथ्य को इंगित करते हुए कि इस मसले के कई अलग-अलग “आयाम” हैं, भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने कहा कि नियोक्ताओं द्वारा महिलाओं को नौकरी की पेशकश करने की राह में जैविक प्रक्रिया को एक “हतोत्साहित” करने वाला पहलू नहीं बनना चाहिए। एक याचिका में राज्यों को छात्राओं और कामकाजी महिलाओं के लिए मासिक धर्म के दौरान होने वाले दर्द के लिए छुट्टी देने के वास्ते नियम बनाने के लिए राज्यों को निर्देश देने की मांग की गई थी। लेकिन ऐसी आशंका है कि इस किस्म के कदम मौजूदा कलंक में इजाफा कर सकते हैं और भेदभाव को भी बढ़ा सकते हैं।

भारत में, केरल और बिहार में मासिक धर्म के दर्द के लिए छुट्टी की व्यवस्था है। फूड डिलीवरी ऐप ज़ोमाटो ने भी इस व्यवस्था को अपनाया है। इंडोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया, स्पेन और जाम्बिया में इस नीति को श्रम कानूनों में शामिल किया गया है। हालांकि, कई नारीवादियों ने यह कहते हुए इस कदम की निंदा की है कि यह नकारात्मक लैंगिक रूढ़ियों को मजबूत करेगा। इसके अलावा, भारत में स्कूलों और कार्यस्थलों पर, खासतौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में स्वच्छता संबंधी सुविधाओं की कमी जैसी अन्य समस्याओं पर ध्यान देने की जरूरत है।

विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 2010 से लेकर 2020 के बीच कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत 26 फीसदी से घटकर 19 फीसदी रह गया है। ज्यादा तादाद में महिलाओं को श्रमशक्ति में शामिल होने को प्रोत्साहित करने के लिए यह जरूरी है कि उन्हें उच्च शिक्षा और कामकाज के ज्यादा अवसर सुलभ हों। कई बार सिर्फ शौचालय न होने की वजह से लड़कियों को स्कूल की पढ़ाई छोड़नी पड़ती है।

एक ऐसी दुनिया में जहां सभी के लिए एक बेहतर माहौल बनाने का प्रयास होना चाहिए, यह सुनिश्चित करना व्यापक समाज और सरकारों की जिम्मेदारी है कि कोई भी वर्ग पीछे न छूटे। कई देश गुणवत्तापूर्ण जीवन मुहैया कराने के लिए चार-दिवसीय कार्य दिवसों की दिशा में कोशिश कर रहे हैं, जबकि अन्य देश पितृत्व अवकाश की पेशकश कर रहे हैं ताकि बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी को  सही व बराबर तरीके से साझा किया जा सके और यह भी सुनिश्चित किया जा सके कि नियोक्ता महिलाओं की भर्ती को एक नुकसान के तौर पर न देखें। लैंगिक समानता और समता की राह में आने वाली सभी बाधाओं को दूर किया जाना चाहिए।

Source: The Hindu (27-02-2023)