बदलता मौसम: ‘गर्मी की लहर’ के बारे में मौसम विभाग की भविष्यवाणी

Searing changes

स्वास्थ्य प्रणालियों को ‘गर्मी की लहर’ से पैदा होनेवाली चुनौतियों के प्रति सजग होना चाहिए

भारत के मौसम विज्ञान विभाग (आइएमडी) ने हाल ही में कहा कि 2023 का फरवरी महीना 1901 के बाद से सबसे गर्म रहा है, जब औसत अधिकतम तापमान लगभग 29.54 डिग्री सेल्सियस था। आम तौर से फरवरी को मौसम विभाग ‘वसंत’ और ‘सर्दियों का महीना’ मानता रहा है जब तापमान आमतौर पर 20 डिग्री से थोड़ा ही ऊपर दर्ज किया जाता है। इस बार हालांकि इसमें धीरे-धीरे वृद्धि हुई है, यहां तक कि न्यूनतम तापमान भी नई ऊंचाइयों को छू रहा है।

औसत अधिकतम तापमान सामान्य से 1.73 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा और न्यूनतम तापमान सामान्य से 0.81 डिग्री सेल्सियस अधिक था। अपने ताजा आकलन में विभाग ने कहा है कि यही रुझान आगे गर्मियों में भी कायम रहेगा। माना जा रहा है कि उत्तर-पूर्व, पूर्वी, मध्य और उत्तर-पश्चिमी भारत के अधिकांश हिस्सों में तापमान ‘सामान्य से अधिक’ दर्ज किया जाएगा। उत्तर-पूर्व, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, केरल और तटीय कर्नाटक को छोड़कर भारत के अधिकांश हिस्सों में मार्च-मई के दौरान लू (हीटवेव) चलने की संभावना है।

‘हीटवेव’ तब होती है जब वास्तविक अधिकतम तापमान 45 डिग्री सेल्सियस से अधिक होता है या फिर क्षेत्र विशेष का तापमान वहां के सामान्य तापमान से 4.5 डिग्री सेल्सियस अधिक होता है। अध्ययनों से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन ने भारत में हीटवेव के प्रभाव को बढ़ा दिया है। लैंसेट में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि 2021 में अत्यधिक गर्मी के कारण भारत में हुई मौतों में 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और 167.2 बिलियन श्रम घंटों का संभावित नुकसान हुआ है।

पिछले कुछ वर्षों के दौरान बढ़ी गर्मी ने गेहूं की उपज को प्रभावित किया है। भारत ने 2021-22 के फसली सीजन में 106.84 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन किया था, जो 2020-21 में उत्‍पादित 109.59 मिलियन टन से कम था क्योंकि 2021 के मार्च में सामान्य से अधिक गर्मी पड़ी जिसने फसल को शुरुआती चरण में ही प्रभावित कर दिया। इस साल के मानसून के लिए इन तापमानों का क्या मतलब है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है क्योंकि मार्च के बाद ही वैश्विक पूर्वानुमान मॉडल समुद्र की सतह की स्थितियों का बेहतर विश्लेषण करने में सक्षम होते हैं और उसके आधार पर कुछ विश्‍वसनीय निष्‍कर्ष दे सकते हैं।

पिछले चार वर्षों में से तीन में भारत में सामान्य से अधिक वर्षा देखी गई जो मुख्य रूप से ला नीना प्रभाव के कारण हुई, यानी भूमध्यरेखीय प्रशांत में सामान्य से कम तापमान का होना। इसके इस बार कम होने की उम्मीद है, लेकिन क्या यह अंततः अल नीनो में बदल जाएगा और भारत के तटों से नमी को दूर ले जाएगा, यह देखा जाना बाकी है। स्थानीय मौसम और जलवायु के बीच परस्पर क्रिया जटिल होती है।

लिहाजा, बढ़ती गर्मी को ‘जलवायु परिवर्तन’ करार देकर इसका दोषी ठहरा देना बेशक आसान और आकर्षक हो, लेकिन इसके पीछे का विज्ञान अनिश्चित है। चाहे जो हो, इस स्थिति को हमें एक चेतावनी के रूप में लेते हुए सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों को मजबूत करने और बढ़ते तापमान से पैदा होने वाली चुनौतियों के प्रति अधिक उत्तरदायी बनने का आह्वान होना चाहिए। कई राज्यों के पास कार्य योजनाएं और पूर्व चेतावनी प्रणाली पहले से मौजूद है, लेकिन विशेष रूप से ग्रामीण भारत तक इनकी पहुंच पर्याप्‍त नहीं है।

इसलिए मौसमी परिवर्तनों के प्रति अनुकूलन विकसित करने के लिए जल्दी पकने वाली नई फसल किस्मों को बढ़ावा देने के साथ-साथ मिट्टी और जल प्रबंधन की प्रथाओं को भी बदलने की दिशा में किसानों की सहायता करने पर जोर दिया जाना चाहिए।

Source: The Hindu (02-03-2023)