अमन का मौका: पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की पेशकश

A chance for peace

अगर पाकिस्तान रिश्तों को सामान्य बनाने के लिए आगे आता है, तो भारत को उससे बातचीत करनी चाहिए

हमेशा से उबड़-खाबड़ रास्तों पर रहे भारत-पाकिस्तान संबंधों के लिए, बातचीत की कोई भी पेशकश, जैसा कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने पिछले सप्ताह की थी, समान रूप से उत्साह और निराशा की वजह बनती है। संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के एक चैनल को दिए गए साक्षात्कार में उनके इस बयान को, कि पाकिस्तान ने भारत के साथ “तीन युद्धों से एक सबक सीखा है” और वह “भारत के साथ शांति से रहना चाहता है, बशर्ते हम ‘कश्मीर जैसे ज्वलंत मसले’ समेत अपनी वास्तविक समस्याओं को हल कर सकें” नई दिल्ली में उनके द्वारा तिनके का सहारा लेने के तौर पर ज्यादा देखा गया। खासकर एक ऐसे वक्त में जब उनका मुल्क उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है।

राजनीतिक मोर्चे पर, श्री शरीफ को इस साल के अंत में चुनावों का सामना करना है और उन्हें पूर्व नेता इमरान खान की अगुवाई वाले विपक्ष की तरफ से लगातार चुनौती मिल रही है। आर्थिक मोर्चे पर, पाकिस्तान के सिर पर ऋण चुकाने से चूक जाने का खतरा मंडरा रहा है और संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब तथा चीन से मिले सहायता के आश्वासनों के साथ-साथ मितव्ययिता के ज्यादा से ज्यादा उपायों को अपनाए जाने के जरिए उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की तरफ से संकट से उबारने वाली सहायता (बेलआउट पैकेज) मिलने की उम्मीद है।

पाकिस्तान को अपनी अफगान सीमा की तरफ से बढ़ते आतंकवादी खतरे का भी सामना करना पड़ रहा है। वहां एक दोस्ताना निजाम होने के बावजूद, खासतौर पर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के लड़ाकों के साथ झड़पें होती रहती हैं। फिर भी, संयुक्त राष्ट्र में तलवारें खींचे जाने के एक महीने बाद श्री शरीफ का अमन के ये अल्फाज इस बात का संकेत देते हैं कि एक समझ बनी है कि पाकिस्तान की वर्तमान हालात के लिए भारत जिम्मेदार नहीं है और किसी भी किस्म की बातचीत से वहां की सरकार को फायदा ही होगा। विदेश मंत्रालय की यह प्रतिक्रिया, कि भारत “पाकिस्तान के साथ सामान्य पड़ोसी रिश्ते” चाहता है, बशर्ते कि “आतंकवाद, दुश्मनी या हिंसा” से रहित एक अनुकूल माहौल हो, बताती है कि दिल्ली अपने रुख पर कायम है, लेकिन वह श्री शरीफ की पेशकश को झटकना भी नहीं चाहता।

श्री शरीफ के बयान में समय भी बहुत कुछ निहित है। अब जबकि भारत इस साल गर्मी में एससीओ शिखर सम्मेलन की मेजबानी करने की तैयारी कर रहा है, अहम बैठकों में पाकिस्तान की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए न्योता भेजा जा रहा है और एक बेहतर दोस्ताना रिश्ता एक आसान सफर सुनिश्चित करेगा। भारत की जी-20 की अध्यक्षता और यूक्रेन युद्ध के बीच दक्षिणी दुनिया के देशों (ग्लोबल साउथ) की चिंताओं को मुखर करने की उसकी इच्छा को भी पड़ोस में शांति से फायदा मिलेगा।

यह देखा जाना बाकी है कि श्री शरीफ के ये अल्फाज सिर्फ असर पैदा करने के लिहाज से कहे गए थे या फिर उसमें बातचीत पर जोर देने की कोई वास्तविक चाहत भी थी। अगर इस्लामाबाद द्वारा वाकई इसपर या तो एससीओ के न्योते को कबूल करने या फिर दोनों राजधानियों में स्थित दूतावासों, जहां 2019 के बाद से राजदूत नहीं हैं, में पूरी क्षमता को बहाल करने की पेशकश करने के जरिए अमल किया जाता है, तो उम्मीद है कि नई दिल्ली भी जवाबी पहल करेगी।

एक ऐसे समय में जब सरकार रूस और यूक्रेन को “बातचीत और कूटनीति” का रास्ता अपनाने की सलाह दे रही है और तालिबान के साथ “व्यावहारिक” नजरिए से संवाद करने की कोशिश कर रही है, क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा देने के इस किस्म के मौके को ठुकराना विरोधाभासी प्रतीत होगा। खासकर उस साल के दौरान, जब एक अगुआ के तौर पर भारत की भूमिका को रेखांकित किया जा रहा है।

Source: The Hindu (25-01-2023)