पाबंदी भरा वर्चस्व: उपराष्ट्रपति की टिप्पणी और बुनियादी ढांचे का सिद्धांत

Bound Supremacy

बुनियादी ढांचे के सिद्धांत के जरिए संसदीय संप्रभुता को कतई नष्ट नहीं कर सकते हैं

यह सर्वविदित है कि संसदीय विधि निर्माण भारत के संविधान के तहत दो किस्म की पाबंदियों के अधीन है। पहली पाबंदी न्यायिक समीक्षा या किसी मौलिक अधिकार के संभावित उल्लंघन की स्थिति में कानून की समीक्षा करने की संवैधानिक अदालतों की शक्ति है। दूसरी पाबंदी यह है कि संविधान में किसी भी संशोधन का प्रभाव इसके किसी भी मूलभूत खासियतों को नष्ट करने वाला नहीं होना चाहिए।

पहली पाबंदी अनुच्छेद 13 में निर्धारित की गई है, जिसके तहत मौलिक अधिकारों के साथ असंगत या उनका अल्पीकरण वाले कानून शून्य होते हैं। जबकि, दूसरी पाबंदी सुप्रीम कोर्ट द्वारा विकसित ‘बुनियादी ढांचे’ के सिद्धांत पर आधारित है। ऐतिहासिक केशवानंद भारती मामले (1973) में प्रतिपादित बुनियादी ढांचे के सिद्धांत पर सवाल उठाने वाली उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की टिप्पणी कानून की सही स्थिति को नहीं दर्शाती है। उनके विचार में, बुनियादी ढांचे के सिद्धांत ने संसदीय संप्रभुता को हड़प लिया है और यह निर्वाचित विधायिका की सर्वोच्चता की लोकतांत्रिक अनिवार्यता के खिलाफ जाता है।

उनकी यह खास चिंता वाजिब जान पड़ती है: कि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में प्रासंगिक संशोधन और उसे प्रभावी बनाने वाले एक संसदीय कानून को रद्द करके देश की शीर्ष अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति करने वाली संस्था ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’  को अस्तित्व में आने से रोक दिया। लेकिन बुनियादी ढांचे के सिद्धांत पर उनके हमले को न्यायपालिका के खिलाफ जहर उगलने की मौजूदा निजाम की कवायद के हिस्से के रूप में और न्यायाधीशों की नियुक्ति में पर्याप्त अधिकार नहीं होने की उसकी शिकायत के रूप में देख पाना बहुत मुश्किल नहीं है।

यह विचार कि बुनियादी ढांचे का सिद्धांत संसदीय संप्रभुता को कमजोर करता है, सरासर गलत है। संसद अपने क्षेत्र में संप्रभु है, लेकिन वह अभी भी संविधान द्वारा लगाई गई पाबंदियों से बंधी है। ऐसा लगता है कि श्री धनखड़ को संविधान में संशोधन करने के संसद के अधिकार क्षेत्र पर किसी भी प्रकार के बंधन होने से समस्या है। निश्चित रूप से, वह यह नहीं भूल सकते कि बुनियादी ढांचे के सिद्धांत ने संसदीय बहुमत के दुरुपयोग के जरिए संविधान को कमजोर किए जाने से बचाने में मदद की थी।

इस सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संविधान की कुछ मूलभूत विशेषताएं निराधार नहीं हैं। इसे सिर्फ कुछ ही मामलों में संशोधनों को रद्द करने के लिए लागू किया गया है, जबकि कई अन्य संशोधन बुनियादी ढांचे की चुनौतियों से बच गए हैं। संसदीय बहुमत अस्थायी होता है, लेकिन कानून का शासन, सरकार का संसदीय स्वरूप, शक्तियों का पृथक्करण, समानता का विचार और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव जैसी संविधान की आवश्यक विशेषताओं को विधायी अतिरेक से स्थायी रूप से संरक्षित किया जाना चाहिए।

इनमें बदलाव तभी संभव हो सकता है जब एक नया संविधान बनाने का इरादा रखने वाली एक नई संविधान सभा इन मूलभूत अवधारणाओं को बदल दे। लेकिन वर्तमान संविधान के तहत गठित एक विधायिका को अपनी मूल पहचान बदलने की इजाजत नहीं दी जा सकती।

Source: The Hindu (14-01-2023)