लुभाइए नहीं, समझाइए: चुनावी वादे और इसका वित्तीय औचित्य

Economics Editorial
Economics Editorial in Hindi

Don’t lure, persuade

चुनावी वादों को पूरा करने पर होने वाले खर्च का ब्यौरा देने से चुनाव अभियान को गहराई मिलेगी

राजनीतिक पार्टियों को अपने घोषणापत्र में किए गए वादे के वित्तीय निहितार्थ का खुलासा करने की जरूरत से संबंधित भारत निर्वाचन आयोग के प्रस्ताव से चुनाव प्रचार में नए अर्थ जुड़ेंगे। पार्टियों को मतदाताओं से किसी ऐसे वस्तु या सेवा देने का वादा करने के लिए खर्च का हिसाब-किताब देना 2015 से ही आदर्श आचार संहिता का हिस्सा है जिससे सरकारी खजाने पर ज्यादा भार पड़ता हो। चुनाव आयोग अब इस तरह की घोषणा के लिए एक प्रपत्र बनाने का प्रस्ताव तैयार कर रहा है।

अगर पार्टियां इससे सहमत होती हैं और इसे आचार संहिता में शामिल किया जाता है, तो पार्टियों को पहले से यह बताना होगा कि उनका वादा समाज के किस वर्ग के लिए है, कवरेज का दायरा क्या होगा, संभावित लाभार्थियों की संख्या क्या होगी और इसे लागू करने की लागत क्या होगी। उन्हें यह भी बताना होगा कि इसके लिए आवश्यक संसाधन कैसे जुटाए जायेंगे। पार्टियों के वादे से सरकारी खजाने पर पड़ने वाले असर का अंदाजा देने के लिए केंद्र और राज्यों को बजट राजस्व प्राप्तियों और खर्च के साथ-साथ बकाया देनदारियों के विवरण का खुलासा करने के लिए कहा गया है।

ऐसा माना गया है कि इस सूचना से एक ऐसा ढांचा तैयार होगा जिससे वित्तीय हालात और व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर मतदाता किसी घोषणापत्र का मूल्यांकन कर सकेगा। इससे पार्टियां ज्यादा जिम्मेदारी के साथ घोषणापत्र तैयार करेंगी जिसमें मतदाताओं को लुभाने के बजाय अपने पक्ष में राजी करने का अभ्यास शामिल होगा।

राजनीतिक हलकों के कुछ तबकों में नाराजगी होना लाजमी है। यह तर्क दिया जा सकता है कि चुनाव आयोग को घोषणा पत्र तैयार करने की बारीकियों में नहीं पड़ना चाहिए, खास तौर पर इसके कार्यान्वयन के तरीके में, क्योंकि इसे पूरा करना अपने वादों के बल पर सत्ता में आने वाली पार्टी की राजनीतिक और प्रशासनिक जिम्मेदारी होगी। यह दिशा-निर्देश 2013 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से तैयार हुआ है जिसमें पार्टियों के चुनावी वादे करने के अधिकार को बरकरार रखा गया था, चाहे वे उपभोक्ता वस्तुओं के वितरण का ही वादा क्यों न कर रही हों।

यह माना गया कि इस तरह के वादों को भ्रष्ट आचरण नहीं माना जा सकता। अगर वह खर्च बजटीय आवंटन से हो रहा है जिसे विधायिका ने मंजूरी दी है, तो उसे अमान्य नहीं करार दिया जा सकता। अदालत ने यह भी सुझाव दिया था कि चुनावी मैदान में सभी खिलाड़ियों के बीच बराबरी कायम रखने की खातिर बढ़ा-चढ़ाकर किए जाने वाले वादों पर पाबंदी लगाने के लिए चुनाव आयोग को कुछ दिशा-निर्देश बनाना चाहिए।

हालांकि, व्यावहारिक स्तर पर, चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों का कोई फल नहीं निकल रहा था क्योंकि पार्टियां इनका पालन खानापूर्ति तरीके से करती हुई गोल-मोल जवाब दे रहीं थीं। अगर ताजा दिशा-निर्देश को लागू किया जाता है, तो विस्तृत वित्तीय जानकारी दिए जाने से मतदाताओं को सूचनाओं से लैस होकर अपनी पसंद तय करने में मदद मिलेगी। साथ ही, विरोधी पार्टियां भी घोषणा पत्र के वादों की गहन जांच-पड़ताल (चीड़-फाड़/समीक्षा) करेंगी।

चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक, लेकिन इस कदम का एक और असर यह पड़ सकता है कि कोई पार्टी सभी मतदाताओं के लिए समवेत रूप से किए गए किसी इकलौते वादे के सहारे जीत हासिल कर सकती है।

Source: The Hindu (07-10-2022)
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